Sunday, May 24, 2020
गरीब (गढ़वाली कविता) - अनूप सिंह रावत
आखिर वों थैं
गरीब दिखे ही गे
चलो कम से कम
दिखे त गे भै!
चाहे राजनीति कु
वोंकु चश्मा पैन्यू छाई वो त पैलि बिटि ही
जग्वाळ छाई
कि कैकि मी पर
जरा नजर त प्वाड़ली
मेरि ख़ैरि क्वी सुणळो
अर जरसि दूर ह्वे जैली
पर वेन यु त
कब्बि बि नि सोचि छौ
तौंकि नजर त सिरफ
अपणा फैदा कि च
वों तैं वेसे क्वी लेणु-देणु नि
वो त अपणी राजनीति कि
दुकान चलाण अयां छन
वैन नि जाणि छै कि
वैकु बीच सड़क पर
उ इनु मजाक उड़ाला
वैका दुःख/विपदौं पर
राजनीति कु ढोंग रचाला
खुट्यों का छालों दगड़ी
जिकुड़ि का घौ बि
हौरि दुखै जाला !!!
वु योंकि रजनीति कु
तमसु "बस" देख्दा रैगे
अर अपणी लाचारी पर
"बस" रूंदा ही रैगे.!!!
© अनूप सिंह रावत
रविवार, 24 मई 2020
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