Monday, November 18, 2019

वरिष्ठ कवि श्री नरेश उनियाल जी द्वारा "ज्यू त ब्वनु च" काव्य संग्रह की समीक्षा

सादर नमस्कार प्रिय मित्रों.. 🙏
"ज्यू त ब्वनु च"..... !!!
जी... यही शीर्षक है इस काव्य संग्रह का, जो आप इस समय मेरे हाथों में देख रहें हैं...

भाई अनूप सिंह रावत की 52 बेहतरीन गढवाळी रचनाओं से सुसज्जित यह काव्य संग्रह मुझे कल ही प्राप्त हुआ है..
आपकी इस सप्रेम भेंट के लिए आपका शुक्रिया अदा करता हूँ भाई रावत जी... बहुत धन्यवाद मुझे इसके योग्य समझने के लिए.. 🙏
काव्य संग्रह में सम्मिलित रचनाओं के बारे में हिन्दी में लिख रहा हूँ...
ताकि मेरे सभी मित्र (हिन्दी भाषी भी) इस संग्रह के सार को समझ पाएं..
अभी परसों ही हमने उत्तराखंड राज्य की 19वीं जयंती मनाई है... पर राज्य का विकास अवरुद्ध सा है.. इसी चिंता को व्यक्त करती हुई शानदार रचनाएँ 'ब्वाला कब तक', 'अलग बात च', 'द बोला तुम सै' और विकास की आस की जग्वाळ (इंतजारी) करती कविता 'जग्वाळ' अपने राज्य के प्रति भाई अनूप की चिंता को अभिव्यक्त करते हैं !

अपनी संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ एवम रहन सहन का परित्याग कर हम लोग पाश्चात्य प्रवाह में बहे चले जा रहें है..इस चिंता की बेहतरीन अभिव्यक्ति 'मेरी पछ्याँण', 'या दुन्या', 'कतगा बदल ग्या अब उत्तराखंड', 'चबोड़', और 'कतगा बदलिगे जमानु' कविताओं में संन्निहित है!
पलायन की पीड़ा को झेलती रचनाएँ 'जै का बाना', 'याद रख्यान', 'छेन्द मौळयार', और 'पहाड़ै ज्वन्नि अर पाणि' इस संग्रह की जान हैं..
यहाँ पर अपनी एक रचना भी मुझे याद आती है, उसका उल्लेख करने की अनूप भाई से क्षमा सहित इजाजत चाहता हूँ कि..
"उन्दरि का बाटा..
रौडि गैनी,
दौड़ि गैनी,
अर बौगि गैनी,
पहाडौ ज्वन्नी अर पाणि..!
एैंच पहाड़ मा रै गिनी त..
नंगी डांडा,
रीता भांडा,
अर
द्यवतोँ की धरति तैं लूटण वळा
वोट का मंगदरा.. !!"
© नरेश उनियाल

युवा कवि जी की श्रृंगार रस से परिपूर्ण रचनाएँ भी इस संग्रह में शामिल हैं... 'अजाण सि अन्वार', और 'घस्यारी' कविता इस रस का प्रतिनिधित्व कर रही हैं..
हमारी देवभूमि कई कुप्रथाओं का शिकार हो रही है, इस व्यथा पर भी अनूप भाई की कलम खूब चली है..'निरभै दारु', 'मनख्यात', 'दहेज-प्रथा' 'कन्या भ्रूण हत्या', जरा इनै सूणा' और 'दैंत ऐ गेनी देवभूमि मा' जैसी रचनाएँ देवभूमि के लिए कवि की चिंता को अभिव्यक्त करती हैं.. !!
जिनका बालपन इस पुण्यभूमि देवभूमि में व्यतीत हुआ हो, वह भला अपनी इस हरी-भरी वसुंधरा को कैसे भूल सकता है... अपनी इस टीस को कवि ने 'कै दिन मैना सालों बिटिन' कविता में व्यक्त किया है !
प्रवासी बेटे -बहू और पोती-पोतों को घर बुलाती बूढ़े माँ बाप की करुण पुकार ('ऐसु रूड़ी मा', 'रैबार', 'देवभूमि त्वै भट्याणी च' और 'धन्यवाद तेरु रूड़ी' रचनाओं में) हृदय को झकझोर जाती हैं !
व्यंग पर भी भाई अनूप ने अच्छी पकड़ बनाई है.. "स्वचणू छौं नेता बणि जौं", "उन त मि" और "बल मी मतदाता छौं" जैसी कविताएं आपको खूब हँसाती हैं !
पहाड़ ही पहाड़ को देखकर रो रहें हैं..पहाड़ों की यह दुर्दशा "पहाड़ मा" कविता में परिलक्षित होता है !
गढ़ गौरव आदरणीय श्री नरेंद्र सिंह नेगी दा का पहला सदाबहार गीत याद आ रहा है.. "सेरा बस्ग्याळ बौंण मा, ह्यूंद कुटण मा, रूड़ी पीसी बितैना, म्यार सदानि यनि दिन रैना!"...इसी (central idea) भाव पर आधारित रचना "पहाड़ा की नारी" बेहतरीन प्रस्तुति है..
"महाभारत कलजुग मा" रचना कहती है कि महाभारत के नकारात्मक पात्र आज भी हमारे बीच मौजूद हैं !
अन्य भी कई खूबसूरत रचनाएँ इस काव्य संग्रह की जान हैं... जिनका जिक्र यहाँ नहीं कर पा रहा हूँ..
आदरणीय मदन मोहन डुकलान जी की शानदार पुस्तक समीक्षा, श्री धीरेन्द्र रावत जी का शब्द संयोजन और मेरे बहुत प्रिय, भाई अतुल गुसाईं 'जाखी' जी का आवरण पृष्ठ सज्जा इस काव्य संग्रह को चार चाँद लगाते हैं...
पुस्तक को अवश्य खरीदें, पढ़ें और हमारी नई पीढ़ी को इसका अवलोकन अवश्य करायें ताकि हमारी अपनी गढवाळी बोली के संरक्षण हेतु युवा भाई अनूप रावत का यह भगीरथ प्रयास अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके !
सादर धन्यवाद, नमस्कार !!
** नरेश उनियाल
(स. अ., हिन्दी)
पैठाणी, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड |
सोमवार, 11/11/2019